संताल समुदाय की परंपरा: सरस्वती पूजा से दूरी क्यों?

 संताल समुदाय की परंपरा: सरस्वती पूजा से दूरी क्यों?

भारत एक ऐसा देश है जहाँ अनेक धर्म, संस्कृति, और परंपराएँ सदियों से coincide करती आई हैं। यहाँ की विविधता में आदिवासी समुदायों का एक अहम स्थान है। इन समुदायों की जीवनशैली, धार्मिक मान्यताएँ और रीति-रिवाज मुख्यधारा से भिन्न होते हैं। ऐसा ही एक प्रमुख आदिवासी समुदाय है "संताल समुदाय"। यह समुदाय सरस्वती पूजा जैसे हिंदू त्योहारों से दूरी बनाए रखता है। आइए समझते हैं कि इसके पीछे की वजहें क्या हैं और यह समुदाय अपनी परंपराओं में किस तरह की विविधता लाता है।

संताल समुदाय की धार्मिक मान्यताएँ


संताल समुदाय भारत के प्रमुख आदिवासी समुदायों में से एक है, जिनकी आबादी मुख्यतः झारखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा और असम में पाई जाती है। यह समुदाय प्रकृति पूजक है और उनके धार्मिक विश्वास प्रकृति और प्राकृतिक शक्तियों के इर्द-गिर्द घूमते हैं। उनकी देवी-देवताओं में प्रकृति के विभिन्न रूपों का ही पूजन होता है, जैसे - सूर्य, चंद्रमा, जल, वन, और पृथ्वी।

संताल धर्म को "सारना धर्म" के नाम से जाना जाता है। यह धर्म मूर्ति पूजा को नहीं मानता, बल्कि प्राकृतिक शक्तियों और उनके प्रतीकों को पूजनीय मानता है। इनके त्योहार और पूजा प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करने और उसकी रक्षा करने पर आधारित होते हैं। 

सरस्वती पूजा का संदर्भ


सरस्वती पूजा हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण त्योहार है, जिसमें ज्ञान, संगीत और कला की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। विशेषकर छात्रों और कलाकारों के लिए यह त्योहार अत्यंत महत्व रखता है। देवी सरस्वती को ज्ञान और विद्या की देवी माना जाता है, और इस पूजा में पुस्तकें, वाद्ययंत्र, और अन्य शैक्षणिक साधन देवी को अर्पित किए जाते हैं।

लेकिन, सरस्वती पूजा का यह प्रचलन संताल समुदाय में नहीं पाया जाता। इसके कई ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, और धार्मिक कारण हैं, जिन्हें समझना आवश्यक है।

सरस्वती पूजा से दूरी के कारण

1.प्राकृतिक पूजा का महत्व

संताल समुदाय मुख्य रूप से प्रकृति पूजक है। उनका धर्म प्रकृति के हर तत्व को पूजनीय मानता है। उनके त्योहार और पूजा विधियाँ जंगल, नदी, पहाड़, और खेती से जुड़ी होती हैं।

सरस्वती पूजा, जो मूर्ति पूजा पर आधारित है, इस समुदाय के धार्मिक दृष्टिकोण से मेल नहीं खाती। मूर्ति पूजा को वे अपने धर्म और परंपरा के खिलाफ मानते हैं, क्योंकि उनके अनुसार ईश्वर या दिव्यता किसी मूर्ति में सीमित नहीं हो सकती।

2.सारना धर्म और सांस्कृतिक पहचान

संताल समुदाय की पहचान उनके "सारना धर्म" से जुड़ी है। यह धर्म उनकी सांस्कृतिक और सामाजिक जीवनशैली का हिस्सा है। उनका विश्वास है कि उनके देवी-देवता प्रकृति में ही निवास करते हैं। वे किसी भी ऐसी पूजा में भाग नहीं लेते, जो उनकी धार्मिक मान्यताओं से अलग हो।

सरस्वती पूजा हिंदू धर्म का हिस्सा है, और इसे अपनाने से वे अपनी सांस्कृतिक पहचान खोने का डर महसूस करते हैं। अपनी सांस्कृतिक विरासत को बनाए रखने के लिए वे अपने पारंपरिक रीति-रिवाजों पर ही निर्भर रहते हैं।

3.आधुनिक शिक्षा और परंपरा का मेल

संताल समुदाय में शिक्षा का महत्व बढ़ रहा है, लेकिन उनकी परंपराएँ अब भी मजबूत हैं। वे शिक्षा को महत्व देते हैं, लेकिन इसे देवी सरस्वती की पूजा से जोड़ने की आवश्यकता महसूस नहीं करते। उनके लिए शिक्षा एक ऐसा माध्यम है, जो जीवन को सुधारने और बेहतर बनाने के लिए है, न कि इसे किसी धार्मिक रूप में बांधने के लिए।

4.सामाजिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण

ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो संताल समुदाय ने सदियों तक अपनी जमीन, जंगल और संस्कृति के लिए संघर्ष किया है। बाहरी प्रभावों को स्वीकार करने की बजाय उन्होंने अपनी पहचान को बचाए रखा है। सरस्वती पूजा को हिंदू धर्म का हिस्सा मानकर वे इसे अपने सामाजिक और सांस्कृतिक दायरे से बाहर मानते हैं।

5.मूर्ति पूजा के प्रति असहमति

संताल समुदाय मूर्ति पूजा को प्रकृति की आत्मा के साथ मेल नहीं मानता। उनका मानना है कि ईश्वर हर जगह मौजूद है, इसलिए उसे मूर्ति के रूप में सीमित करना उनकी धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ है।

संताल समुदाय के धार्मिक त्योहार


संताल समुदाय के त्योहार उनके धार्मिक विश्वासों और प्रकृति के साथ जुड़ाव को दर्शाते हैं। उनके कुछ प्रमुख त्योहार हैं:

1. सोहराई पर्व : यह फसल कटाई का त्योहार है, जिसमें फसल की उपज के लिए धन्यवाद दिया जाता है।

2. बाहा पर्व : यह वसंत ऋतु में मनाया जाता है, जो प्रकृति के पुनर्जागरण का प्रतीक है।

3. करम पर्व : यह भाईचारे और प्रकृति की पूजा का पर्व है। इसमें करम देवता की पूजा की जाती है।

4. मागे पर्व : यह शुद्धिकरण और समुदाय के पुनर्नवीकरण का त्योहार है।

5. मड़ये बोंगा : यह नये साल के फसल ठिक से होने को लेकर पूजा की जाती हैं।

6. बुरु बोंगा : बुरु (पर्वत) से मिलने वाले जिव- जत्तुओं की पूजा की जाती हैं।

7. बिन्दु चन्दो : यह ज्ञान की पूजा की जाती है।

इन त्योहारों में मूर्ति पूजा की बजाय प्रकृति की पूजा की जाती है, जो उनके धार्मिक दृष्टिकोण का मुख्य भाग है।

क्या सरस्वती पूजा को अपनाने की संभावना है?


आधुनिक समय में शिक्षा और बाहरी प्रभावों के बढ़ने के साथ कुछ आदिवासी समुदायों में बदलाव देखा गया है। लेकिन संताल समुदाय अब भी अपनी परंपराओं को सहेजने के लिए प्रतिबद्ध है। उनकी मान्यताएँ और रीति-रिवाज उनकी पहचान का हिस्सा हैं, और वे इसे किसी भी बाहरी प्रभाव से प्रभावित नहीं होने देते।

हालांकि, कुछ युवा पीढ़ी आधुनिक शिक्षा और मुख्यधारा के त्योहारों को अपनाने की ओर बढ़ रही है। यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले समय में यह समुदाय किस हद तक अपनी परंपराओं को बनाए रखता है या उन्हें बदलता है।

निष्कर्ष


संताल समुदाय की सरस्वती पूजा से दूरी उनके धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विश्वासों का परिणाम है। उनकी परंपराएँ प्रकृति के साथ गहरे संबंध पर आधारित हैं, जो मूर्ति पूजा से मेल नहीं खातीं।

यह समुदाय अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने के लिए सदियों से संघर्ष कर रहा है। सरस्वती पूजा जैसे त्योहारों से दूरी उनके धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण का हिस्सा है, जो उन्हें अद्वितीय बनाता है।

आखिरकार, यह विविधता ही भारत की असली शक्ति है, जो इसे एक समृद्ध और रंगीन राष्ट्र बनाती है। संताल समुदाय का उदाहरण यह दिखाता है कि हर संस्कृति और परंपरा की अपनी एक अलग पहचान और महत्व है, जिसे समझने और सम्मान देने की आवश्यकता है।

 

 

 

Post a Comment

Previous Post Next Post

Contact Form