संताल परगना की 'चादर - बादोनी': परंपरा को मिली नई पहचान, संरक्षण में जुटे कलाकार
भारत की सांस्कृतिक विरासत में हस्तशिल्प और कलाएं अपनी अलग पहचान रखती हैं। झारखंड के संताल परगना क्षेत्र की 'चादर-बादोनी' कला भी ऐसी ही एक अनूठी परंपरा है, जो न केवल स्थानीय संस्कृति को दर्शाती है, बल्कि इसके संरक्षण और प्रचार के लिए कलाकारों की मेहनत और समर्पण भी सराहनीय है। हाल के वर्षों में इस कला को नई पहचान मिली है, और यह देश-विदेश में अपनी छाप छोड़ रही है।
चादर-बादोनी क्या है?
चादर-बादोनी एक पारंपरिक हस्तशिल्प कला है, जो संताल परगना के आदिवासी समुदायों द्वारा सदियों से की जाती रही है। यह कपड़े पर हाथ से की जाने वाली कढ़ाई की एक विशेष शैली है, जिसमें प्राकृतिक रंगों और स्थानीय डिजाइनों का उपयोग किया जाता है। 'चादर' का अर्थ है कपड़ा, जबकि 'बादोनी' कढ़ाई की प्रक्रिया को दर्शाता है। इस कला में फूल, पत्तियों, जानवरों और ज्यामितीय आकृतियों को बेहद सुंदर तरीके से उकेरा जाता है।
ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व
चादर-बादोनी कला संताल परगना के आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा है। यह कला न केवल उनके रोजमर्रा के जीवन को दर्शाती है, बल्कि उनके विश्वास, परंपराओं और प्रकृति के प्रति गहरे लगाव को भी प्रदर्शित करती है। पहले यह कला केवल स्थानीय उपयोग के लिए बनाई जाती थी, लेकिन अब इसकी मांग देश-विदेश में बढ़ रही है।
नई पहचान और बाजार में उभरती भूमिका
पिछले कुछ वर्षों में, चादर-बादोनी कला को नई पहचान मिली है। सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों ने इस कला को बढ़ावा देने के लिए कई पहल की हैं। कलाकारों को प्रशिक्षण, वित्तीय सहायता और बाजार तक पहुंच प्रदान की गई है। इसके अलावा, विभिन्न हस्तशिल्प मेलों और प्रदर्शनियों में चादर-बादोनी उत्पादों को प्रदर्शित किया जा रहा है, जिससे इसकी लोकप्रियता बढ़ी है।
आज, चादर-बादोनी से बने साड़ियाँ, दुपट्टे, बेडशीट, टेबल कवर और अन्य सजावटी सामान बाजार में उपलब्ध हैं। यह न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी लोकप्रिय हो रहा है। इस कला के माध्यम से संताल परगना के कलाकारों को आर्थिक सशक्तिकरण भी मिल रहा है।
संरक्षण के प्रयास
चादर-बादोनी कला को संरक्षित करने के लिए स्थानीय कलाकारों और संगठनों ने कई कदम उठाए हैं। कलाकारों को आधुनिक डिजाइन और तकनीकों का प्रशिक्षण दिया जा रहा है, ताकि वे अपनी कला को नए रूप में पेश कर सकें। साथ ही, इस कला को युवा पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए कार्यशालाएं और प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं।
सरकार ने भी इस कला को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न योजनाएं शुरू की हैं। झारखंड सरकार ने हस्तशिल्प को बढ़ावा देने के लिए 'झारखंड राज्य हस्तशिल्प नीति' लागू की है, जिसमें चादर-बादोनी जैसी पारंपरिक कलाओं को विशेष महत्व दिया गया है।
चुनौतियाँ और भविष्य की राह
हालांकि चादर-बादोनी कला को नई पहचान मिली है, लेकिन इसके सामने कई चुनौतियाँ भी हैं। मशीनीकरण और बाजार में सस्ते उत्पादों की भरमार के कारण हस्तनिर्मित उत्पादों की मांग कम हो रही है। इसके अलावा, युवा पीढ़ी का इस कला से दूर होना भी एक बड़ी चुनौती है।
इन चुनौतियों से निपटने के लिए जरूरी है कि इस कला को और अधिक प्रोत्साहित किया जाए। स्थानीय कलाकारों को बाजार तक पहुंच प्रदान करने, उनके उत्पादों की मार्केटिंग करने और इस कला को शिक्षा के माध्यम से युवाओं तक पहुंचाने की आवश्यकता है।
लुप्तप्राय हो चुकी संताल परगना की परंपरागत आदिवासी कठपुतली लोक कला 'चादर-बादोनी' के संरक्षण की दिशा में सतत प्रयास हो रहे हैं। इसके बचे-खुचे कलाकारों में से मुख्य मानेश्वर मुर्मू मजबूत स्तंभ साबित हो रहे हैं। वे चादर-बादोनी के नए कलाकारों को न केवल प्रशिक्षण दे रहे हैं, बल्कि विभिन्न मंचों पर इसे प्रदर्शित भी कर रहे हैं। उनके ही प्रयास से यह कला संरक्षित व संवर्द्धित होती दिख रही है। मुलायम लकड़ी और बांस का उपयोग करके कठपुतलियां बनाने की ट्रेनिंग देना और इसकी बारीकियों से अवगत कराने का काम वे पिछले कई सालों से लगातार कर रहे हैं। मानेश्वर मसलिया प्रखंड के नवासार गांव के रहने वाले हैं। फिलवक्त इस कला को बचाने में वे जी-जान से जुटे हैं, वहीं इसमें जनमत शोध संस्थान भी बड़ी भूमिका निभा रहा है।
जनमत शोध संस्थान के सचिव अशोक सिंह कहते हैं कि 2010 में जब राष्ट्रीय मास्क एवं पपेट्री महोत्सव का आयोजन किया गया, तो देश के विभिन्न प्रांतों से मुखौटा और कठपुतली लोक कला से जुड़े कलाकारों ने अपना प्रदर्शन किया। उसमें मात्र दो टीमों ने झारखंड का प्रतिनिधित्व किया। एक सरायकेला का छऊ नृत्य दल और दूसरा दुमका से आदिवासी कठपुतली लोक कला चादर-बादोनी की टीम। यहां 'चादर-बादोनी' के एक सेट की कीमत न सिर्फ 35 हजार रुपये लगाई गई, बल्कि इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट द्वारा अपने म्यूजियम के लिए उसकी खरीदारी भी की गई। साथ ही कुछ और नए सेट बनाने का ऑफर भी दिया गया।
इसी
कड़ी में 2017 से नवासार में 'आदिवासी हस्तशिल्प कला केंद्र' का संचालन
किया जा रहा है, जहां मुख्य प्रशिक्षक मानेश्वर मुर्मू के नेतृत्व में इस
कला से जुड़े कलाकार व शिल्पी इस पर काम कर रहे हैं। इस केंद्र के माध्यम
से चादर-बादोनी के निर्माण, प्रशिक्षण और प्रदर्शन का काम होता है। साथ ही
कलाकारों को रोजगार भी मिलता है।
भादो व अश्विन मास के बीच होता था चादर-बादोनी का प्रदर्शन
चादर-बादोनी संताल आदिवासी समुदाय की एक परंपरागत कठपुतली लोक कला है, जो मुख्यतः झारखंड के संताल परगना एवं पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती इलाके से सटे आदिवासी बहुल इलाकों में कभी प्रचलित व लोकप्रिय रही थी। यह कला पिछले डेढ़ दशक से विलुप्तप्राय हो गई थी। इससे जुड़े कलाकार ज्यादातर इसका प्रदर्शन भादो व अश्विन मास, विशेषकर दुर्गा पूजा के आस-पास के गांवों में करते थे। कुछ लोगों का कहना है कि यह काम वे लोग मुख्यतः सप्तमी से दशमी तक के बीच ही किया करते थे।
इसके साथ-साथ गाने-बजाने वाले कलाकारों का भी एक दल साथ होता था, जो मांदर, नगाड़ा, झाल, करताल आदि के साथ-साथ अपने परंपरागत वेशभूषा में सजे-धजे होते थे। विशेषकर माथे की पगड़ी इतने कलात्मक ढंग से बंधी होती थी कि लोग उस दल से आकर्षित होते थे और पूरे गांव में उनके पीछे-पीछे घूमते थे। ये कलाकार प्रदर्शन के दौरान 'चादर-बादोनी' के चारों ओर घूम-घूम कर गीत-संगीत के साथ नाचते-गाते थे और लोगों का स्वस्थ मनोरंजन कर कुछ महत्वपूर्ण संदेश देने का भी काम किया करते थे।
संताल जीवन और संस्कृति की झलक
चादर-बादोनी की कठपुतलियों की बनावट, उनकी मुखाकृतियां और वस्त्राभूषण संताल जनजाति समुदाय के अनुरूप होता है। जिसकी वजह से संबंधित दर्शक समुदाय का मुख्य जुड़ाव उससे सहजतापूर्वक बन पाता है, क्योंकि वे आकृतियां उनकी अपनी और आसपास की सुपरिचित होती हैं। एक डोर से बंधी कठपुतलियों के नृत्य में आदिवासी जीवन व संस्कृति की झलक साफ देखी जा सकती है।
नई पहचान और संरक्षण के प्रयास
आज चादर-बादोनी को नई पहचान मिल रही है। इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों ने इस कला को अपने म्यूजियम में स्थान दिया है। साथ ही, स्थानीय कलाकारों और संगठनों के प्रयासों से इस कला को पुनर्जीवित किया जा रहा है। मानेश्वर मुर्मू जैसे कलाकारों की मेहनत और समर्पण ने इस कला को न केवल संरक्षित किया है, बल्कि इसे नई पीढ़ी तक पहुंचाने का काम भी किया है।
भविष्य की राह
चादर-बादोनी कला को बचाने और इसे आगे बढ़ाने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों को मिलकर काम करने की जरूरत है। युवाओं को इस कला से जोड़ने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम और कार्यशालाएं आयोजित की जानी चाहिए। साथ ही, इस कला को बाजार तक पहुंचाने के लिए मार्केटिंग और प्रचार-प्रसार की व्यवस्था भी की जानी चाहिए।
चादर-बादोनी न केवल संताल परगना की सांस्कृतिक धरोहर है, बल्कि यह भारत की समृद्ध लोक कला परंपरा का एक अहम हिस्सा भी है। इसके संरक्षण और प्रचार से न केवल स्थानीय कलाकारों को आर्थिक सशक्तिकरण मिलेगा, बल्कि यह कला देश-विदेश में अपनी पहचान बनाएगी।
निष्कर्ष
संताल परगना की चादर-बादोनी कला न केवल एक हस्तशिल्प है, बल्कि यह एक जीवंत परंपरा है, जो सदियों से चली आ रही है। इस कला को नई पहचान मिलना और कलाकारों का इसे संरक्षित करने का प्रयास सराहनीय है। यदि इस दिशा में सही कदम उठाए जाएं, तो चादर-बादोनी न केवल भारत बल्कि विश्व स्तर पर अपनी छाप छोड़ सकती है। इस कला के माध्यम से न केवल सांस्कृतिक विरासत को बचाया जा सकता है, बल्कि स्थानीय कलाकारों को आर्थिक रूप से सशक्त भी बनाया जा सकता है।